
धार्मिक शास्त्रों और ग्रंथों में यह बात आती है. की यह आत्मा ईश्वर का ही अंश है। बस इसी वजह से यह ईश्वर की ही तरह अजर और अमर है। जिस तरह ईश्वर का स्वरूप हमें दिखाई नहीं देता बस हम एक इमेज बना लेते है. की ईश्वर कुछ इस तरह से है .उसी तरह यह आत्मा भी कभी देखने को नहीं मिलती यह अवनाशी है. एक घट से निकलकर दूसरे घट में प्रवेश कर लेती है .
इस आत्मा का अस्तित्व इस संसार में आकर संस्कारों के कारण ही बढ़ता है। किये गए कर्मों के आधार पर उस आत्मा को शरीर मिलता है.और वह उसी में प्रवेश करती है .एक शरीर का त्याग कर अन्य में प्रवेश करती है. आत्मा का न कोई रंग होता है न रूप, ईश्वर की तरह ही यह निराकार है .
वेदों में एक ऋगवेद में आत्मा की मिलती है पुष्टि -
इस वेद में बताया गया है. की यह जीवात्मा अमर है .और शरीर प्रत्यक्ष नाशवान। यह आत्मा दिखती नहीं पर अमर है. और यह स्थूल शरीर जो दिखाई देता है. यह नाशवान है. आज नहीं तो कल यह नष्ट हो जाएगा इसका अस्तित्व तब तक है जब तक आत्मा इस शरीर में स्थित है. आत्मा के निकलते ही यह शरीर नष्ट हो जाता है, मानव ने यदि अपने जीवन में आत्मा और शरीर के भेद को जान लिया और इससे जीने का ढंग सीख लिया तो यही उसकी सादगी है .
शास्त्रों में वर्णित है की आत्मा वह है जो पाप से मुक्त है, वृद्धावस्था से रहित है, मौत और शोक से रहित है, भूख और प्यास से रहित है, सुख दुःख का कोई फेरा नहीं , कोई कामना न कोई द्वेष श्रीमतभागवत गीता में आत्मा की अमरता के विषय पर विस्तृत व्याख्यान किया गया .
ग्रन्थ में वर्णित है -
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता व न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोअयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मती है और न मरती ही है न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
वसांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोअपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
आप कुछ इस तरह से स्पष्ट कर सकते है. जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होती है। पर यह आत्मा शरीर को त्याग के बाद प्रेत योनि से मुक्ति के लिए 13 दिनों का समय लेती है। इसलिए इस दौरान आत्मा की शांति के लिए, पूजा- पाठ, दान-दक्षिणा आदि अनुष्ठान किए जाते हैं। इसके बाद आत्मा पितृ लोक को प्राप्त हो जाती है।