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श्री वेंकेटेश्वर भगवान का पहला मंदिर बहुत ही छोटे से स्थान पर बना थाश्री वेंकेटेश्वर भगवान का पहला मंदिर बहुत ही छोटे से स्थान पर बना था

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तिरुमाला की सात पवित्र पहाड़ियां, आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले के तिरुपति शहर में 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। समुद्र तल से 2500 फीट ऊंचाई वाली इन पहाड़ियों के नाम शेषाचल, वेदांचल, गरुड़ाचल, अंजनाचल, वृषभाचल, नारायणाचल व वेंकटाचल हैं, जो आपस में एक पर्वतमाला बनाती हैं जहां प्रभु श्री वेंकटेश्वर भगवान का मंदिर है।

मान्यता है कि श्री वेंकेटेश्वर भगवान का पहला मंदिर बहुत ही छोटे से स्थान पर बना था, जिमसें प्रभु श्री वेंकेटेश्वर की आधारभूत अर्चना के अतिरिक्त किसी भी अन्य गतिविधि के लिए सीमित अवसर मौजूद थे।

तिरुमाला, तिरुपति के पास स्थित एक हिल स्टेशन है। तिरुपति वेंकटेश्वर मंदिर (आंध्र प्रदेश) इसे भारत का दूसरे नंबर का सबसे अमीर मंदिर माना जाता है। इसकी प्रसिद्धि का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि रोज इस मंदिर में 60 हजार से ज्यादा लोग दर्शन के लिए आते हैं।

दंतकथाओं में उल्लेख

मंदिर के पुराने पत्थरों पर, 614 ईं. से पहले के शिलालेखों से प्रमाणित होता है कि तब भी मंदिर का अस्तित्व था और वह उस क्षेत्र में काफी लोकप्रिय था। हिंदू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार श्री वेंकटेश्वर भगवान का पहला मंदिर राजा तोंडमान ने बनवाया था। दंतकथाएओं के अनुसार वर्तमान में प्रभु वेंकटेश्वर की मूर्ति जिस स्थान पर है। तब भी वहीं थी, राजा तोंडमान ने प्रभु की मूर्ति का निर्माण करवाया था। उन्हें वराह प्रभु के लिए मंदिर निर्माण करवाने का श्रेय भी दिया जाता है।

वर्ष में खुलता है एक बार दरवाजा

स्कंद पुराण की एक कथा के अनुसार प्रभु श्री वेंकटेश्वर भगवान का मूल मंदिर एक सादे ढांचे में बना था, यह मंदिर वेंकटाचल की पहड़ियों के घने जंगलों में था। इस प्रारंभिक मंदिर में गर्भगृह के आसपास प्रदक्षिणा करने के लिए स्थान बनाया गया था। जब मूल तीर्थ का विस्तार किया तो इस मार्ग को बंद कर दिया गया।

अब इस दरवाजे को वर्ष भर में सिर्फ जनवरी माह में आने वाली मुक्ति एकादशी के दिन ही खोला जाता है। इस दिन की जाने वाली प्रदक्षिणा मुक्ति प्रदक्षिणा कहलाती है।

कहते हैं मंदिर का विस्तार कार्य धीरे-धीरे आगे बढ़ा, यह कार्य प्रभु के कुछ धनी भक्तों ने आगे बढ़ाया। इस मंदिर का कई बार जीर्णोद्धार हुआ लेकिन इसके प्रमाण बहुत कम मिलता है।

लेखक एन रमेशन अपनी पुस्तक 'द तिरुमला टेंपल' में ऐसे ही एक नवीनीकरण कार्य का वर्णन मिलता है, जिसे 13वीं शताब्दी में मूल गर्भ गृह को ढंकने के लिए करवाया गया।

पुस्तक में उल्लेख मिलता है कि इस प्रकार गर्भ गृह (मूल तीर्थ) की मूल दीवारों के बाहरी रूप की जांच करना संभव नहीं रहा तथा यह भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता अपने मूल रूप में कैसा रहा होगा।


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