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बोधिधर्म की एक बौद्ध कथाबोधिधर्म की एक बौद्ध कथा

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आज से करीब 1500 साल पहले चीन में वू नाम का एक राजा था, जो बौद्ध धर्म का महान संरक्षक था। उसका बड़ा मन था कि भारत से कोई बौद्ध शिक्षक चीन आए और बौद्ध धर्म के संदेशों का प्रचार-प्रसार करे। इसके लिए उसने भरपूर तैयारियां भी की। ये तैयारियां कई सालों तक चलती रहीं और राजा इंतजार करता रहा, लेकिन कोई भी बौद्ध गुरु नहीं आया।

दिन बीतते गए और देखते ही देखते राजा साठ साल का हो गया। फिर एक दिन यह संदेश आया कि दो महान, प्रबुद्ध गुरु हिमालय पार करके चीन आएंगे और बौद्ध धर्म के संदेशों का प्रचार करेंगे। यह सुनकर सब तरफ जैसे उत्साह का माहौल बन गया और राजा भी इस खुशी में एक बड़े उत्सव के आयोजन की तैयारी में लग गया। कुछ महीनों के इंतजार के बाद, चीन राज्य की सीमा पर दो लोग नजर आए। ये थे बोधिधर्म और उनका एक शिष्य।

बोधिधर्म
बोधिधर्म का जन्म दक्षिण भारत में पल्लव राज्य के राज परिवार में हुआ था। वह कांचीपुरम के राजा के पुत्र थे, लेकिन छोटी आयु में ही उन्होंने राज्य छोड़ दिया और भिक्षुक बन गए। 22 साल की उम्र में जब वह प्रबुद्ध हो गए, तो उन्हें बौद्ध धर्म के संदेश वाहक के रूप में चीन भेजा गया। जैसे ही उनके आने की खबर राजा वू को मिली, वह अपने राज्य की सीमा तक खुद पहुंचा और उनके स्वागत और आदर-सत्कार की पूरी तैयारी के साथ वहां दोनों बौद्ध गुरुओं का इंतजार करने लगा।

जब ये भिक्षुक वहां पहुंचे, तो लंबी यात्रा की थकान उन पर सवार थी। राजा वू ने उन्हें देखा तो उसे बड़ी निराशा हुई। दरअसल, उसे बताया गया था कि उन दोनों में से एक बहुत बड़े ज्ञानी हैं और इसलिए वह उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन यह तो महज 22 साल का एक लड़का निकला! दूसरी तरफ, पर्वतों में महीनों की लंबी यात्रा से थके हुए बोधिधर्म भी राजा पर अपना कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए।

खैर, राजा निराश तो बहुत हुआ, लेकिन उसने किसी तरह अपनी निराशा को छिपाया और दोनों भिक्षुकों का स्वागत किया। उसने उन्हें अपने शिविर में बुलाया और उन्हें बैठने का स्थान देकर उनके भोजन की व्यवस्था की। इसी बीच, जैसे ही उसे सवाल पूछने का मौका मिला, उसने बोधिधर्म से कहा, “क्या मैं आपसे एक प्रश्न कर सकता हूं?”

बोधिधर्म बोले, “बिल्कुल कर सकते हैं।” राजा वू ने पूछा, “इस सृष्टि का स्रोत क्या है?” बोधिधर्म राजा की ओर देखकर हंसते हुए बोले, “यह तो बड़ा बेवकूफी भरा प्रश्न है! कोई और प्रश्न पूछिए।” राजा वू ने खुद को बड़ा अपमानित महसूस किया। दरअसल, उसके पास बोधिधर्म से पूछने के लिए सवालों की एक पूरी सूची थी। ऐसे प्रश्न जो उसने कई सालों के दौरान सोचे थे, ऐसे  प्रश्न जो उसके हिसाब से बेहद गहरे और गंभीर थे। और अब न जाने कहां से आए इस तुच्छ लड़के ने उसके ऐसे ही एक गहन प्रश्न को मूर्खतापूर्ण कह कर खारिज कर दिया! और वह भी वह प्रश्न जिस पर उसने कई गंभीर वाद विवाद और चर्चाएं की थी! भीतर ही भीतर खुदको बहुत अपमानित और क्रोधित महसूस करते हुए भी, उसने अपने को संभाला और कहा, “चलिए, मैं आपसे दूसरा प्रश्न पूछता हूं। मेरे अस्तित्व का स्रोत क्या है?”

यह सुनकर बोधिधर्म और भी जोर से हंसे और बोले, “यह तो और भी मूर्खतापूर्ण प्रश्न है! कुछ और पूछिए।”

अगर राजा वू भारत के मौसम या बोधिधर्म की सेहत के बारे में पूछता, तो शायद बोधिधर्म फिर भी उसके सवालों का जवाब दे देते। मगर वह व्यक्ति तो ‘इस सृष्टि के स्रोत’ और ‘अपने अस्तित्व के स्रोत’ के बारे में पूछ रहा था। बोधिधर्म ने राजा के इन प्रश्नों को नकार दिया।

अब तो राजा का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया, लेकिन फिर भी उसने खुद को संभाले रखा और तीसरा प्रश्न पूछा। उसने अपने जीवन में किए गए सभी अच्छे कामों की एक सूची बनाई थी – उसने कितने लोगों को भोजन कराया, क्या-क्या अच्छे काम किए, कितना दान दिया, कितनी समाज सेवा की, यह सब उसकी सूची में शामिल था। उसने पूछा, “बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए मैंने कई ध्यान कक्ष बनवाए, सैकड़ों बगीचे लगवाए और हजारों अनुवादकों को प्रशिक्षित किया। मैंने इतने सारे प्रबंध किए हैं। क्या मुझे मुक्ति मिलेगी?”

यह सुनकर बोधिधर्म गंभीर हो गए। वह खड़े हुए और अपनी बड़ी-बड़ी आंखें राजा की आंखों में डालकर बोले, “क्या! तुम और मुक्ति? तुम तो सातवें नरक में झुलसोगे।”

उनके कहने का मतलब था कि बौद्ध धर्म के मुताबिक, मस्तिष्क के सात स्तर होते हैं। अगर कोई इंसान वह काम न करे जो उस वक्त जरूरी है, और उसकी बजाय कुछ और काम करता है, और यही नहीं, वह उन सभी कामों का लेखा-जोखा भी रखता है, तो इसका मतलब है कि ऐसे इंसान का मस्तिष्क सबसे नीच किस्म का है। ऐसे इंसान को निश्चित रूप से कष्ट उठाना पड़ेगा, क्योंकि वह इस उम्मीद में है कि उसने जो अच्छे काम किए हैं, उनके बदले लोग उसके साथ अच्छा व्यवहार करेंगे। अगर लोग ऐसा नहीं करते तो उसे मानसिक कष्ट होगा और यह स्थिति किसी नरकसे कम नहीं है।

लेकिन राजा वू को इनमें से कोई भी बात समझ नहीं आई। वह गुस्से से भर गया और बोधिधर्म को अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। बोधिधर्म को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उनके लिए इस बात का कोई मायने नहीं था कि वह राज्य में रह रहे हैं या पर्वतों पर। उन्होंने अपनी यात्रा जारी रखी। लेकिन राजा वू ने अपने जीवन को सुन्दर बनाने का एक मात्र आध्यात्मिक अवसर खो दिया।

ज़ेन को चीन ले जाने का काम बोधिधर्म का ही था। गौतम बुद्ध ने ध्यान सिखाया था। सैकड़ों सालों के बाद बोधिधर्म ने जब ध्यान को चीन पहुंचाया, तो वहां स्थानीय प्रभाव के कारण यह चान के रूप में जाना गया। यही चान जब आगे इंडोनेशिया, जापान और दूसरे पूर्वी एशियाई देशों तक पहुंचा, तो इसका नाम फिर बदला और वहां जाकर यह आखिर ज़ेन बन गया।
राजा वू के राज्य से निकाले जाने के बाद बोधिधर्म पर्वतों में चले गए। वहां उन्होंने कुछ शिष्यों को इकट्ठा किया और पर्वतों में ही ध्यान करने लगे। एक साधक के लिए नींद उसकी सबसे बड़ी दुश्मन होती है। एक दंत कथा के मुताबिक, एक बार बोधिधर्म ध्यान करते-करते सो गए। इस बात से उन्हें अपने पर इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपनी पलकों को ही काट डाला। जब उनकी कटी पलकें जमीन पर गिरी, तो वे पहला चाय का पौधा बन गई। तब से नींद से बचने के लिए भिक्षुओं को चाय पहुंचाई जाने लगी ।

ये दंत कथा आखिर आई कहां से? राजा वू द्वारा निकाले जाने के बाद बोधिधर्म जिस पहाड़ी पर रहने लगे थे, उसे ‘चाय’ के नाम से जाना जाता था। एक दिन उस पहाड़ी पर शायद उन भिक्षुकों को कुछ अलग किस्म की पत्तियां दिखाई दी। बोधिधर्म ने जांच-पड़ताल के बाद पाया कि अगर इन पत्तियों को उबालकर पिया जाए, तो इससे नींद भाग जाती है। इसे पीकर वे अब पूरी रात सतर्क रह कर ध्यान कर सकते थे। और इस तरह से चाय की खोज हुई।


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