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धार्मिक आस्था कालिदास की रचनाधार्मिक आस्था कालिदास की रचना

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कालिदास की रचनाओं से प्रतीत होता है कि शिव और शक्ति के उपासक थे। उन्होंने रघुवंश के आरंभ में पार्वती और परमेश्वर की वंदना करते हुए कहा है --

वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरी।।

अपने उपास्य देव शिव के विषय में कवि का कहना है --

यस्य चेतसि वर्तेथा: स तावत्कृतिनां वरः।।

विक्रमोर्वशीय के आरंभ में उन्होंने शिव को सर्वेश्वर बताया है। इससे ऐसा न समझें कि वे कोई कट्टर शैव थे। वे विष्णु के उपासक भी थे। उनके लिए "रामाभिधानो हरि:' एक प्रत्यक्ष सत्य था और उसी राम की गौरवगाथा से रघुवंश गौरवान्वित है। वे विष्णु को जगतगुरु मानते हैं। वास्तव में कालिदास ब्रह्मा, विष्णु और शिव का अभेद मानते हैं। यथा --

एकैव मूर्तिर्बिभेद त्रिधा सा सामान्यमेषां प्रथमावरत्वम्।
विष्णोर्हरस्तस्य हरि: कदाचिद् वेधास्तयोस्तावपि धातुराद्यौ।।

फिर भी शिव के भक्त होने के नाते अपने उपर्युक्त वेदांत- दर्शन को पीछे रखकर वे ब्रह्मा के मुख से शिव के विषय में कहलाते हैं --

स हि देवः परं ज्योतिस्तमः पारे व्यवस्थितम्।
परिच्छिन्नप्रभावर्किद्धर्न मया न च विष्णुना।।

शैव संस्कृति के अनुरुप ही कालिदास को योग की क्षमता में अप्रतिम विश्वास था। अनेक राजाओं को योग द्वारा मुक्ति प्राप्त कराने की बात उन्होंने पुनः कही है। यथा --

महीं महेन्छः परिकीर्य सूनौ मनीषिणे जैमिनयेsर्पितात्मा।
तस्मात् स योगादधिगम्य योगमजन्मनेsकल्पत जन्मभीरु:।।

कालिदास के काव्य में प्रसाद की अगाधता, माधुर्य का मधुर निवेश, पदो की कोमल कमनीयता, भावों का सौष्ठव, अलंकारों की रमणीयता आदि ने इनको विश्व सर्वश्रेष्ठ कवि बना दिया है। ""शैक्सपीयर की रुपमती प्रतिभा मिल्टन की प्रबंधमयी प्रतिभा और शैली की गीतिमयी प्रतिभा का एकत्र सम्मिलन कालिदास की कविता में दृष्टिगोचर होता है।


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