
आज हम इस संसार में बहुत से साधनो के माध्यम से सांसारिक ज्ञान तो ले लेते है. यह ज्ञान वातावरण के मुताबिक देखने, सुनने , आजमाने ,से तो मिल जाता है. पर आंतरिक ज्ञान की पुष्टि तो मानव की अंतरात्मा से ही होती है. उसके मन से उपजे सद विचार ही उसके मन और आत्मा को पवित्र करते है . आज यह दौर है की हम शिक्षा से अपने बाहरी आवरण को तो बदल देते है. पर आंतरिक आवरण को बदलने की बिलकुल भी कोशिश नहीं करते है .
साथ ही साथ हम अपने इस बाहरी आवरण को देख- देख इतना प्रसन्न होते है. और आंतरिक आवरण में अविद्या, अहंकार, अज्ञानता , द्वेष ईर्षा का भण्डार भर देते है. मानव जीवन में शिक्षा का सही उपयोग तो अंतर्मन में होना चाहिए बाहरी आवरण के लिए जरूरी नहीं . क्योकि यदि आपका आंतरिक आवरण सज गया, आपके विचार भाव सही हो गए तो आपका यह बाहरी आवरण बदल ही जाएगा .
वैसे भी यह बाहरी आवरण एक दिन नष्ट ही हो जाता है. पर आपका यह आंतरिक आवरण कभी भी नष्ट नहीं होता उसका अच्छा फल अगले जन्म में भी मिलता है .
इस आंतरिक और बाहरी आवरण को लेकर किसी ने कहा है -
मन मेला और तन को धोए .
मन चंगा तो कठोती में गंगा
आज जरा आप इस संसार में शिक्षा की स्थिति को तो देखिये -
लोग आज किसी न किसी क्षेत्र में शिक्षा तो ले लेते है. पर उसका सही उपयोग नहीं करते है. आज व्यक्ति गलत आदतों ,व्यसनों को अपने आचरण में ला रहा है. वह यह नही समझ रहा है कि भविष्य में इन बुरी आदतों का जाने क्या असर होगा. हम चाहे जितनी भी शिक्षा प्राप्त कर लें, इससे हमारे अंतर्मन में कोई परिवर्तन नहीं आ सकता। अंतर्मन में परिवर्तन तो आंतरिक मनन और चिंतन से होता है.