
एक बार युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा, 'मित्रों का कहना है कि मैं राजसूय यज्ञ करके सम्राट का पद प्राप्त करूं। परंतु राजसूय यज्ञ तो वही कर सकता है जो सारे संसार के नरेशों का पूज्य हो और उनके द्वारा सम्मानित हो, इसलिए आप मुझे इस बारे में सही मार्गदर्शन देने की कृपा करें।'
युधिष्ठिर की बात को शांति से सुनकर श्रीकृष्ण बोले, 'मगधदेश के राजा जरासंध ने सभी राजाओं को जीतकर उन्हें अपने अधीन किया हुआ है। क्षत्रिय राजाओं पर जरासंध की धाक जमी है। सभी उसकी शक्ति का लोहा मानते हैं और उनके नाम से डरते हैं। यहां तक कि शिशुपाल जैसे शक्ित सम्पन्न राजा भी उसके अधीन हो चुका है।'
अतः जरासंध के रहते हुए और कौन सम्राट पद प्राप्त कर सकता है? जब महाराज उग्रसेन के नासमझ लड़के कंस ने जरासंध की बेटी से विवाह कर लिया और उसका साथी बन चुका था तब मैनें और मेरे बंधुओं ने जरासंध के विरुद्ध युद्ध किया था। तीन वर्ष तक हम उसकी सेनाओं से लड़ते रहे, पर आखिर हार गए। जरासंध के भय से हमें मथुरा छोड़कर, द्वारका में नगर बसाकर रहना पड़ा।'
आपके सम्राज्यधीश होने में दुर्योधन और कर्ण को आपत्ति भले ही न हो, फिर भी जरासंध से इसकी आशा रखना बेकार है। बगैर युद्ध के जरासंध इस बात को नहीं मान सकता। उसने आज तक पराजय तक का नाम नहीं लिया है। ऐसे अजेय पराक्रमी राजा जरासंध के जीते-जी आप राजसूय यज्ञ नहीं कर सकेंगे। किसी न किसी तरह से पहले उसका वध करना होगा। उसने जिन राजाओं को बंदी बना रखा है, उन्हें छुड़ाना होगा। तभी राजसूय यज्ञ करना आपके लिए उचित रहेगा।'
श्रीकृष्ण की बातें सुनकर युधिष्ठिर बोले, 'आपका कहना सही है वासुदेव। आकांक्षा वह आग है जो कभी नहीं बुझती। इसलिए मुझे अपनी भलाई इसी बात में दिखाई देती है कि कि मैं सम्राट बनने का विचार छोड़ दूं और जो कुछ ईश्वर ने दिया है उसी को लेकर संतुष्ट रहूं।'
धर्मराज की विनयशीलता उनके अनुज भीम को अच्छी न लगी। उन्होंने कहा, 'प्रयत्नशीलता राजा लोगों का खास गुण माना जाता है। जो अपनी शक्ति को स्वयं नहीं पहचानते उनके पौरष को धिक्कार है।'
श्रीकृष्ण बोले, 'इसमें शक नहीं कि अत्याचारी जरासंध को मारना ठीक होगा। जरासंध चाहता है कि जब पूरे सौ राजा पकड़े जा चुके होंगे तो वह पशु बलि के स्थान पर राजाओं का वध करके यज्ञ का अनुष्ठान करेगा। ऐसे अत्याचारी को मारना ही न्यायोचित ही है। यदि भीम और अर्जुन सहमत हो जाएं, तो हम तीनों ही जरासंध को मार सकते हैं।'
यह बात युधिष्ठिर को नहीं जंची वह तुरंत बोले, 'मैं नहीं चाहता कि अर्जुन और भीम को कोई समस्या आए। इसलिए इस विचार को यहीं त्याग देना चाहिए।'
तब अर्जुन ने कहा कि, 'हम यशस्वी भरतवंश की संतान होकर भी कोई साहस का काम न करें, तो साधारण लोगों और हममे क्या फर्क रह जाएगा। जिस काम को करने की हममें सामर्थ्य है, भाई युधिष्ठिर क्यों समझते हैं कि उसे हम न कर सकेंगे?
श्रीकृष्ण अर्जुन की इन बातों पर मुग्ध हो गए। वह बोले, 'धन्य हो, कुंती के लाल अर्जुन से मुझे यही आशा थी, मृत्यु से डरना नासमझी की बात है। एक न एक दिन सबको मरना ही है। नीतिशास्त्रों का कहना है कि ठीक युक्ति से काम लेकर दूसरों के वश में कर लेना और विजय प्राप्त कर लेना ही क्षत्रियोचित धर्म है।'
इस तरह जरासंध के वध को लेकर संवाद स्थल पर मैजूद भगवान श्रीकृष्ण, युधिष्ठर, भीम और अर्जुन में आपसी सहमति बन गई।