
पंचतत्वों के गुणों को बदलना या यह तय करना कि ये तत्व हमारे भीतर कैसे काम करेंगे, काफी हद तक मानव-मन और चेतना के अधीन है। इसके विज्ञान और तकनीक को इस संस्कृति में पूरी गहराई से परखा गया था और उसे एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को सौंपा जाता रहा।
लेकिन पिछले सौ सालों में, जीवन के प्रति अपने बहुत अहंकारी रवैये के कारण हमने बहुत सी चीजें छोड़ दीं। इस देश में हमारे पास ज्ञान का जो भंडार है, अगर हम उसे फिर से अपना लें, तो वह न सिर्फ इस देश के कल्याण के लिए बल्कि पूरी दुनिया के कल्याण के लिए एक महान साधन हो सकता है। पश्चिम से आने वाले सभी तरीके आम तौर पर बस थोड़े समय के लिए उपयोगी होते हैं। उनके यहां सब कुछ बस इस्तेमाल करके फेंक देने के लिए होता है। यहां तक कि इंसान भी। दिक्कत यह है कि राजनैतिक तथा कुछ दूसरी किस्म के प्रभाव के कारण कोई चीज अगर पश्चिम से आए तो विज्ञान बन जाती है, और अगर पूर्व से आए तो अंधविश्वास।
बहुत सी बातें जो आपको कभी आपकी दादी-नानी ने बताई होंगी, आज बड़े-बड़े वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में ‘महान-आविष्कारों’ के रूप में खोजी जा रही हैं। जो बातें वे अरबों डॉलर के रिसर्च और अध्ययनों के बाद बता रहे हैं, हम अपनी संस्कृति में पहले से कहते आ रहे हैं। इसका कारण यह है कि हमारी संस्कृति जीवन की विवशताओं से विकसित नहीं हुई है। यह वह संस्कृति है, जिसे ऋषि-मुनियों ने विकसित किया है, इसका ध्यान रखते हुए कि आपको कैसे बैठना चाहिए, कैसे खड़े होना चाहिए और कैसे खाना चाहिए। मानव कल्याण के लिए जो सबसे श्रेष्ठ है, उसे ध्यान में रखते हुए इसे तैयार किया गया था और इसका बहुत वैज्ञानिक महत्व है।
खास तौर पर पिछले कुछ वर्षों में, पानी और पानी की क्षमता पर काफी शोध किया गया है। वैज्ञानिक एक बात कह रहे हैं कि पानी में याद्दाश्त होती है। पानी जिसके भी संपर्क में आता है उसे याद रखता है। आज-कल घरों में जो पानी पहुंचाने की व्यवस्था है उसमें, पानी को बलपूर्वक पंप किया जाता है और उसे आपके नल में आने से पहले पचास घुमावों से गुजरना पड़ता है। जब तक वह पानी आपके घर पहुंचता है, कहा जाता है कि वह साठ फीसदी जहरीला हो चुका होता है, रासायनिक रूप से नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि उसका आणविक-ढांचा यानी ‘मॉलिक्यूलर स्ट्रक्चर’ बदल जाता है।
बैक्टीरिया की वजह से कोई चीज जिस तरह दूषित होती है, हो सकता है कि वह उस तरह दूषित न हो, लेकिन तेजी से गुजरने की वजह से पानी के आणविक ढांचे में इस तरह का बदलाव आ जाता है कि वह लाभदायक नहीं रह जाता, बल्कि विषैला भी हो सकता है। अगर आप इस जल को तांबे के एक बरतन में दस से बारह घंटे तक रखें, तो उस नुकसान की भरपाई हो सकती है। लेकिन अगर आप उसे सीधे नल से पीएं, तो आप एक खास मात्रा में जहर पी रहे हैं। लोग इस तरह से जिंदगी जीते हैं और कहते हैं, ‘मुझे कैंसर कैसे हो गया? मुझे यह बीमारी क्यों हो गई?’ अगर आप जीवन के प्रति बिना किसी संवेदना के जीते हैं, जो तत्व आपको बनाते हैं, उनका ख्याल नहीं रखते तो सब कुछ ठीक होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
पाया गया है कि पानी की रासायनिक संरचना को बदले बिना, आप आणविक व्यवस्था को इस तरह व्यवस्थित कर सकते हैं कि पानी आपके शरीर में बिल्कुल अलग तरीके से काम करे। उदाहरण के लिए, अगर मैं अपने हाथ में एक गिलास पानी लूं, उसे एक खास तरीके से देखूं और आपको दूं, तो उसको पीने से आपका भला हो सकता है। वहीं अगर मैं उसे दूसरे तरीके से देखूं और आपको दूं, तो उसे पीकर आप आज रात को ही बीमार पड़ जाएंगे।
आपकी दादी-नानी आपसे कहा करती थीं, ‘तुम्हें हर किसी के हाथ से न तो पानी पीना चाहिए और न ही खाना खाना चाहिए। तुम्हें ये चीजें हमेशा उन्हीं लोगों के हाथ से लेनी चाहिएं जो तुमसे प्रेम करते हैं और तुम्हारी परवाह करते हैं। किसी से भी ले कर और कहीं भी बैठ कर कोई चीज नहीं खानी चाहिए।’ जब आपकी दादी-नानी ऐसा कहती थीं, तो वह अंधविश्वास था। जब आप यह चीज अमेरिका में वैज्ञानिकों से सुनते हैं, तो आप इसे गंभीरता से लेंगे। यह एक तरह की दासता है।
इस संस्कृति में, हमें हमेशा से मालूम था कि जल की अपनी याददाश्त होती है। आप जिसे तीर्थ कहते हैं, वह बस यही है। आपने देखा होगा कि लोग मंदिर से तीर्थ की एक बूंद पाने के लिए कैसे बेचैन रहते हैं। अगर आप अरबपति भी हैं, तो भी आपमें उस एक बूँद के लिए लालसा होती है, क्योंकि आप उस जल को ग्रहण करना चाहते हैं जिसमें ईश्वर की स्मृति हो।
अगर आप तमिलनाडु के किसी पारंपरिक घर में जाएं, तो आप देखेंगे कि जल एक खास तरीके से पीतल या तांबे के बरतनों में रखा गया है। यह रिवाज पहले देश में हर जगह था, लेकिन दूसरे स्थानों में यह काफी हद तक खत्म सा हो गया है। वे हर सुबह पानी वाले बरतन को इमली से मांजते हैं, थोड़ी विभूति और थोड़ा कुमकुम लगाते हैं और उसकी पूजा करते हैं। उसके बाद ही वे उसमें पानी रखते हैं और उसी से पानी पीते हैं क्योंकि उन्हें हमेशा से पता है कि जल की याददाश्त होती है। वे जानते हैं कि आप जल को जिस तरह के बरतन में रखते हैं और उसके साथ जैसा बरताव करते हैं, उससे यह तय होता है कि वह आपके भीतर कैसा व्यवहार करेगा।
मैं आपको एक घटना के बारे में बताता हूं। कुछ साल पहले, मैं एक दक्षिण भारतीय घर में गया। यहां अतिथि सत्कार में सबसे पहले आपके लिए पीने का पानी लाते हैं। तो घर की गृहिणी मेरे लिए पीने का पानी लाईं। मैंने उनके चेहरे की ओर देखा, वो काली की तरह रौद्र दिख रहीं थीं। दरअसल उनके पति नब्बे दिन के एक कार्यक्रम के लिए मेरे साथ आना चाहते थे। वह एक अच्छी महिला हैं, लेकिन उस दिन वह काली की तरह थीं। इसलिए जब वह पानी लाईं, तो मैंने कहा, ‘अम्मा, आज आप काली की तरह दिख रही हैं। मुझे इस जल की कोई जरूरत नहीं है।
मैं ऐसी बुरी हालत में नहीं हूं कि पानी के बिना काम न चले।’ वो बोलीं- ‘यह अच्छा पानी ही है।’ मैंने कहा – ‘यह पानी अच्छा है, लेकिन आप जिस रूप में हैं, मुझे यह पानी पीने की जरूरत नहीं है।’
अगर सद्गुरु आपके घर आएं और पानी पीने से इनकार कर दें, तो एक दक्षिण भारतीय परिवार में यह कोई छोटी बात नहीं है। नाटक शुरू होने लगा।
इसलिए मैंने उससे कहा – “इस पानी की एक घूंट आप पीजिए।” उनको लगा कि मैं पानी की जांच के लिए उनको चखने को कह रहा हूं, उसने पी लिया और बोली – “यह अच्छा है।”
मैंने उनसे वह पानी लेकर बस एक मिनट तक उसे अपने हाथ में पकड़े रखा। फिर उनको दिया। ‘अब इसे पीजिए।’ उन्होंने उसे पीया, उनके आंसू निकलने लगे और वह रोने लगीं ‘अरे यह कितना अच्छा है! यह मीठा है।’ मैंने कहा, ‘जीवन ऐसा ही है। अगर आप एक खास रूप में हैं, तो सब कुछ मीठा हो जाता है। अगर आप किसी दूसरे तरह से हैं, तो आपके जीवन में सब कुछ कटु हो जाएगा।’
अगर सिर्फ एक विचार या निगाह से, आप किसी बरतन के पानी को मीठा कर सकते हैं, तो सही तरह के नजरिए, एकाग्रता और ध्यान देने से क्या आप शरीर रूपी इस बरतन के जल को मिठास से नहीं भर सकते? अगर आप ऐसा कर पाएं, तो आप बहत्तर फीसदी मीठे हैं, क्योंकि आपके शरीर में लगभग इतनी ही पानी की मात्रा है।