
भक्ति परंपरा के प्रवर्तक आचार्य रामानुज के पास एक एक दिन एक युवक आया और उनकी चरण वंदना करके बोला, मुझे आपका शिष्य बनना है। आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। उस युवक का नाम था श्रीमाल। रामानुज ने उससे पूछा, तुम्हें शिष्य क्यों बनना है? श्रीमाल ने कहा, शिष्य होने का उद्देश्य तो परमात्मा से प्रेम करना है। रामानुज ने कहा, इसका अर्थ है कि तुम्हें परमात्मा से प्रीति करनी है। परंतु एक बात बताओ कि तुम अपनी पत्नी से कितना प्रेम करते हो?
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श्रीमाल ने कहा, अभी तो मेरा विवाह भी नहीं हुआ है। उससे प्रेम करने का तो सवाल ही नहीं है। फिर संतश्री ने पूछा, पत्नी नहीं है, तो घर में माता-पिता के प्रति श्रद्धा-भक्ति तो होगी। श्रीमाल ने कहा, मेरी मां का निधन मेरे जन्म के बाद ही हो गया था। पिता उससे कोई तीन महीने पहले दिवंगत हो गए थे। आचार्य ने फिर पूछा, तुम्हें अपने भाई-बहन से स्नेह तो होगा? श्रीमाल ने नकारते हुए कहा, मुझे उनसे कोई लगाव नहीं है।
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दरअसल, मुझे किसी पर स्नेह नहीं आता। लगता है कि पूरी दुनिया स्वार्थपरायण है। इसीलिए तो मैं आपकी शरण में आया हूं। तब संत रामानुज ने कहा, फिर मेरा और तुम्हारा कोई मेल नहीं। तुम्हें जो चाहिए, वह मैं नहीं दे सकता। यह सुनकर युवक स्तब्ध रह गया। उसने कहा, मैंने किसी से प्रीति नहीं की।
परमात्मा के लिए मैं इधर-उधर भटका। सब कहते थे कि परमात्मा से प्रीति जोड़ना हो, तो संत रामानुज के पास जाओ; पर आप तो इन्कार कर रहे है। रामानुज ने कहा, यदि तुम्हें किसी से स्नेह-अनुराग नहीं है, तो मैं उसे परमात्मा की ओर कैसे मोड़ सकता हूं? तुम्हारे भीतर थोड़ा भी प्रेम होता, तो उसे विशाल बनाकर परमात्मा के चरणों तक पहुंचा सकता था। लेकिन, तुम तो निरे रूखे निकले।