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कर्मों की श्रेष्टता में ही निहित है मानव की प्रतिष्ठाकर्मों की श्रेष्टता में ही निहित है मानव की प्रतिष्ठा

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कर्मों से ही मानव को सदगति और दुर्गति का सामना करना पड़ता है.मानव के कर्म ही उसे सुख और दुःख की और ले जाते है. मानव जीवन में उसके कर्मों की ही तो प्रधानता है. जो उसे उचाईयों तक ले जाते है . हमें अपने कर्मों को दूसरों को हानि पहुंचाने में नहीं, बल्कि उनके मार्ग में आशा के दीप जलाने में आगे बढ़ाना चाहिए ।

शास्त्रों के अनुसार कर्मों के फल निश्चित हैं. कर्म बीज है, जो बोया गया तो वृक्ष बनेगा। फूल व फल लगेंगे। अगर बीज को बोया ही नहीं जाए तो फल क्या होगा, समझा जा सकता है। एक बार एक संत अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग को प्राप्त करते है .जब वे इस स्वर्ग के दरवाजे पर पहुँचते है तो वहां खड़े द्वारपाल उन्हें रोकते हुए बोले, अंदर जाने से पहले कर्मों का लेखा-जोखा देखना पड़ता है.और कहने लगे की आप बिना हिसाब किये अंदर नहीं जा सकते है.

तब उन द्वारपालों की बात से नाराज होकर संत ने कहा -

'आप यह कैसा व्यवहार कर रहे हैं? बच्चे से लेकर वृद्ध तक सभी मुझे जानते हैं।" की में कैसा व्यक्ति हूँ पृथ्वी लोक में मुझे बहुत सी ख्याति प्राप्त है . तब वे द्वारपाल बोले - 'आपको कितने लोग जानते हैं, इसका लेखा-जोखा हमारे बही- खाते में नहीं होता। इसमें तो केवल कर्मों का लेखा-जोखा होता है।" इसके बाद वे द्वारपाल बहीखाता लेकर संत के जीवन का पहला भाग देखने लगे।

तभी फिर संत बोले - आप मेरे जीवन का दूसरा भाग देखिए, क्योंकि पहले हिस्से में मैंने लोगों की सेवा की, जबकि दूसरे हिस्से में मैंने जप-तप और ईश्वर की आराधना की है. उनकी बातो को मानते हुए द्वारपालों ने उनके जीवन का दूसरा हिस्सा देखा, तो वहां उन्हें कुछ भी नहीं मिला सब कुछ कोरा सा है वे फिर से उनका लेखा-जोखा देखने लगे और बोले - 'संत जी, आपका सोचना गलत है। आपके अच्छे और पुण्य के कार्यों का लेखा-जोखा जीवन के आरंभ में है।

दूसरे भाग में नहीं संत आश्चर्यचकित हो उठे और कहने लगे 'यह कैसे संभव है?" तब द्वारपाल बोले 'जीवन के पहले हिस्से में आपने मनुष्यों की सेवा की और इसी कारण आपको स्वर्ग में स्थान मिला है, जबकि ईश्वर की आराधना आपने जीवन में सुख के लिए धन दौलत की भावना को लेकर की है साथ ही साथ आपके अंदर वस्तुओं की प्राप्ति के लिए स्वार्थ भाव को लेकर आराधना की है , इसलिए वह पुण्य का कार्य नहीं है। उनकी बात सुनकर संत समझ गए की जीवन में जप-तप से बढ़कर कर्म है। मनुष्य को हमेशा सद्कर्म करना चाहिए। सद्कर्मो से सदगति मिलती है .


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